कबीर – धर्म से परे एक सत्य की खोज

कबीर का सच्चा धर्म: मंदिर, मस्जिद से परे आध्यात्मिक पथ

भूमिका: कौन थे कबीर?

15वीं शताब्दी में जन्मे संत कबीर दास ऐसे महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने धर्म, समाज और ईश्वर के बारे में गहरी बातें कहीं। कबीर का जीवन साधारण था, पर उनके विचार असाधारण। वे न तो किसी धर्म विशेष के पक्षधर थे और न ही कर्मकांडों के समर्थक। वे सीधे अनुभव और सच्चे प्रेम से ईश्वर तक पहुँचने की बात करते थे।

कबीर की दृष्टि में धर्म क्या है?

कबीर का मानना था कि सच्चा धर्म न तो मंदिरों में मिलता है, न मस्जिदों में, बल्कि आत्मा की गहराइयों में बसता है। उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ईश्वर को पाने के लिए किसी विशेष स्थान या बाहरी रीति-रिवाज की आवश्यकता नहीं है।

“मस्जिद चढ़ि के मुल्ला बाँगे, क्या बहरा हुआ खुदाय?
दिल भीतर काबा रक्खिए, आवाज देहु सो पाय।”

इस दोहे में कबीर पूछते हैं – क्या खुदा बहरा हो गया है जो उसे ऊँची आवाज़ में पुकारना पड़े? यदि आप अपने दिल को ही ‘काबा’ बना लें, तो वहीं आपको खुदा मिल जाएगा।

मंदिर-मस्जिद की सीमा से परे सोच

कबीर हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की आलोचना करते थे, लेकिन किसी के विरोधी नहीं थे। वे उन आडंबरों के खिलाफ थे जो धर्म के नाम पर समाज में फैले हुए थे।

“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार,
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार।”

यहाँ कबीर मूर्ति पूजा पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं – यदि पत्थर पूजने से भगवान मिलते, तो मैं तो पूरे पहाड़ की पूजा करूँ। फिर तो चक्की ज्यादा अच्छी है, जो कम से कम अनाज पीस कर लोगों का पेट भरती है।

कबीर का ईश्वर: निर्गुण ब्रह्म

कबीर दास निर्गुण भक्ति के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनका ईश्वर रूपरहित, नामरहित और स्थानरहित है। वे कहते हैं कि ईश्वर को पाया नहीं जा सकता, सिर्फ अनुभव किया जा सकता है।

“मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मन्दिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में॥”

यहां कबीर सीधे-सीधे कहते हैं कि इंसान ईश्वर को बाहर खोज रहा है, जबकि वह तो हमारे ही भीतर बैठा है। न वह मंदिर में है, न मस्जिद में, न किसी तीर्थ में। वह तो आत्मा में है।

समाज में कबीर की क्रांति

कबीर ने समाज में फैली जातिवाद, धर्मांधता, रूढ़िवादिता और बाह्याचारों का खुलकर विरोध किया। उन्होंने संत, साधु, मुल्ला, पंडित – सभी की आलोचना की जब वे केवल कर्मकांड करते थे, ईश्वर की सच्ची अनुभूति नहीं।

“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।”

कबीर यहां कहते हैं – साधु की जाति मत पूछो, उसका ज्ञान देखो। जैसे तलवार की धार को देखना चाहिए, न कि उसकी म्यान को।

कबीर का आदर्श जीवन मार्ग

कबीर ने किसी भी धर्म या संप्रदाय से बंधने से इनकार किया। उन्होंने एक ऐसे जीवन की बात की जिसमें सादगी हो, प्रेम हो, और ईमानदारी हो। वे अहंकार, द्वेष और लोभ को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु मानते थे।

“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं,
सब अँधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या माहीं।”

इस दोहे में कबीर अहंकार छोड़ने की बात करते हैं। जब ‘मैं’ का अस्तित्व रहता है, तब ईश्वर नहीं आता। जब ‘मैं’ मिट जाता है, तभी ईश्वर प्रकट होता है।

आज के युग में कबीर की प्रासंगिकता

आज जब धर्म के नाम पर समाज बँट रहा है, तब कबीर की वाणी और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। वे हमें सिखाते हैं कि धर्म का मूल उद्देश्य है – प्रेम, सहिष्णुता और आत्मा की खोज।

कबीर के विचार आज भी हमें बताते हैं कि हम मंदिर या मस्जिद जाकर धार्मिक नहीं बनते, बल्कि अंदर झाँककर, सत्य को खोजकर ही हम सच्चे धार्मिक बन सकते हैं।

निष्कर्ष: कबीर की राह – भीतर की यात्रा

कबीर का संदेश सीधा है – ईश्वर को बाहर मत खोजो, भीतर देखो। वे मंदिर-मस्जिद से परे एक ऐसे आध्यात्मिक मार्ग की ओर इशारा करते हैं जो मानवता, करुणा और सत्य से जुड़ा है।

आज के समय में जब धर्म को अक्सर राजनीतिक और सामाजिक मतभेदों में बदल दिया जाता है, तब कबीर की वाणी हमें याद दिलाती है कि सच्चा धर्म वह है जो दिल से जुड़ा हो, और जो सबको जोड़ता हो, तोड़ता नहीं।

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